बहुभागीय पुस्तकें >> जमाना बदल गया - भाग 3 जमाना बदल गया - भाग 3गुरुदत्त
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एक ऐतिहासिक उपन्यास...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध का इतिहास लिखने वाले एक विज्ञ लेखक ने लिखा
है कि वह युद्घ तो जीत लिया गया था, परन्तु शान्ति के मूल्य पर उसके शब्द
हैं-‘We won war but lost peace’। उस लेखक ने इसका
कारण भी बताया है। उसके कथन का अभिप्राय यह है कि मित्र-राष्ट्रों की
सेनाओं ने और जनता ने तो अतुल साहस और शौर्य का प्रमाण दिया था, परन्तु
युद्ध-संचालन करने वाले राजनीतिज्ञ भूल-पर-भूल करते रहे। उनकी भूलों ने
हिटलर को हटाकर, उसके स्थान पर स्टालिन को स्थापित कर दिया।
भारत के विषय में भी हमारा कहना यही है। सन् 1857 से लेकर 1947 तक के सतत संघर्ष से हमने भारत से अंग्रेजो को निकाल दिया, परन्तु इसे निकालने के प्रयास में हमने भारत की आत्मा की हत्या कर दी है। हमने अंग्रेजों को निकाल कर अपनी गर्दन नास्तिक अभारतीयों और मूर्खों के हाथ में दे दी है। जहाँ देश के दोनों द्वार भारत विरोधियों (पाकिस्तानियों) के हाथ में दे दिये हैं, वहाँ भारत का राज्य ऐसे नेताओं के हाथ में सौंप दिया है, जो धर्म-कर्म विहीन हैं और कम्यूनिस्टों के पद-चिह्नों पर चलने लगे हैं।
1857 से पूर्व तो देश के लोग मुसलमानों से देश को मुक्त करने में लगे थे। उस समय से पूर्व, देश को पुनः अपने वैभव और गौरव के स्थान पर ले जाने के लिए यह आवश्यक समझा जा रहा था कि यहाँ मुसलमानों को निःशेष किया जाये। कारण यह कि इस्लाम की शिक्षा, गै़र-मुसलमानों के साथ अन्याय, अत्याचार और बलात्कार करने की ही होती थी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि देश के गैर-मुसलमान मुसलमानों को सदा अपना शत्रु मानते रहे।
परन्तु इस समय देश में एक तीसरी शक्ति अर्थात् अंग्रेज़ आ पहुँचे और उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान के इस वैमनस्य से लाभ उठा अपना राज्य स्थापित करना आरम्भ कर दिया।
अतः देश के नेताओं ने अंग्रेज़ को साँझा शत्रु मान, परस्पर मैत्री कर ली और 1857 का युद्ध लड़ा। वह मैत्री अस्वाभाविक थी। उद्देश्य एक नहीं था। जीवन-मीमांसा भिन्न-भिन्न थी। कुछ अन्य भी कारण थे जिनसे युद्ध अपने अन्तिम ध्येय को प्राप्त नहीं कर सका। इस पर भी कुछ तो सफलता मिली। एक व्यावसायिक कम्पनी के अधिकार से निकलकर देश अंग्रेज़ी पार्लियामैन्ट के अधीन चला गया।
इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेज एक ओर मुसलमानों को हिन्दुओं के विरूद्ध करने में लग गये और दूसरी ओर हिन्दुओं को समझाने-बुझाने लगे कि देशवासी मिलकर रहेंगे तो लाभ होगा। इसके साथ-साथ वे हिन्दुओं में फूट के बीज भी बोने लगे।
हिन्दू इस कूटनीति के शिकार हो गये और स्वभाव से अथवा अंग्रेज़ के भड़काने से रूठे हुए मुसलमानों को मनाने के लिए उनको अधिक और अधिक राजनीतिक सुविधाएँ तथा अधिकार देना स्वीकार करने लगे। मुसलमान इस त्रिपक्षीय झमेले में लाभ की स्थिति में पहुँच गये।
हिन्दुओं को इस झमेले में से निकालने का मार्ग नहीं सूझा। यदि किसी ने मार्ग सुझाया भी तो तत्कालीन नेताओं को समझ नहीं आया और मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को उनके पास गिरौ रखने का प्रयत्न 1885 से आरम्भ हो गया। कुछ अंग्रेज़ीपढ़े-लिखे लोग एकत्रित होकर हिन्दुओं को समझाने लगे कि देश में मुख्य समुदाय होने से उनको इन रूठे हुए मुसलमानों को समझा-बुझाकर अपने साथ मिला लेना चाहिए। मुसलमान किसी भी गैर-मुसलमान का मित्र नहीं। हिन्दू भारत-द्रोही का मित्र नहीं हो सकता। इस पर भी मुसलमानों की मैत्री प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को अपने देश प्रेम का बलिदान करना पड़ा। एक-एक विशेष अधिकार, जो मुसलमान को दिया जाता था, वह देश के नागरिकों के अधिकारों में से छीन कर ही दिया जाता था।
यह 1885 से लेकर 1916 तक चलता रहा। इसके पश्चात तो मुसलमान बंदर बाँट की भाँति अंग्रेजों और हिन्दुओं में तराजू पकड़ कर बैठ गये। अंग्रेज़ भी घाटे में रहे और हिन्दू भी। अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा और सख्त बदनाम होकर। हिन्दुओं को पाकिस्तान देना पड़ा लाखों की हत्या कराकर। मजे में रहे मुसलमान। यह ठीक है कि मुसलमान उतना लाभ नहीं उठा सके, जितना बन्दर बाँट की कहानी में बन्दर को प्राप्त हुआ था। इसमें कारण था उनकी अपनी दुर्बलता।
1919 के पश्चात् हिन्दुओं में एक और देवता अवतीर्ण हुए। यह थे महात्मा गाँधी। इन्होंने मुसलमानों के लिए बहुमत और उचित हिन्दू-पक्ष के धर्म और संस्कृति का बलिदान तो किया ही, साथ ही इन्होंने ईमानदारी की भी बलि देने की शिक्षा देनी आरम्भ कर दी। मुसलमान को प्रत्येक मूल्य पर प्रसन्न करना धर्म बन गया। अहिंसा के पर्दे के पीछे ईमानदार और सरल चित्त देश-प्रेमियों का इस कारण विरोध आरम्भ हो गया कि मुसलमानों को प्रसन्न करना है।
अतः We won freedom but lost our soul’-अर्थात् हमने राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली, परन्तु देश की आत्मा की हत्या कर बैठे हैं।
वर्तमान भारतीय समाज की आत्म-विहीनता का चित्र तो हम किसी अन्य पुस्तक में लिखेंगे। वह इस पुस्तक का उपसंहार होगा। इसमें हमने केवल यह बताने का यत्न किया है कि भारतीय समाज, जो धर्म-ईमान के लिए जान हथेली पर रखकर धर्म-क्षेत्र में अवतीर्ण थी, कैसे स्वराज्य मिलने पर भीरू, देशद्रोही, धर्म-कर्म विहीन और सब प्रकार के दुर्गणों से युक्त हो गई है ? ‘ज़माना बदल गया’ की यही कहनी है।
‘ज़माना बदल गया है तीन भागों1 में लिखा गया है। प्रथम भाग में 1857 से लेकर 1907 तक की घटनाओं का वर्णन है। द्वितीय भाग में 1907 से 1920 तक की देश की उथल-पुथल की विवेचना है और इस तृतीय भाग में 1921 से 1947 तक का वृत्तान्त है।
आज से नौ सौ पूर्व मुसलमानों से पराजित होने का कारण, जीवन सम्बन्धी मिथ्या-मीमांसा का व्यापक प्रचार था। उस जीवन-मीमांसा का आधार था, जैन तथा बौद्ध मत की अहिंसा की नीति, वैष्णव मत का
1. ज़माना बदल गया का चतुर्थ भाग बाद में लिखा गया है जो एक प्रकार से पुस्तक का उपसंहार ही है।
भगवान् पर अन्ध-विश्वास कर स्वयं अकर्मण्य बने रहने की प्रवृत्ति और नवीन वेदान्तियों का संसार को मिथ्या मानना। ये मिथ्या मीमांसाएँ न तो प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति की देन थीं, न ही इनका स्रोत धर्म में था। इस पर भी ये थीं और इनके व्यापक प्रचार के कारण ही, कुछ सहस्र मुसलमान, विदेश से आकर इस विशाल देश में राज्य जमा बैठे और फिर यहाँ कि कोटि-कोटि जनता पर अत्याचार करते रहे।
इन जीवन मीमांसाओं का भारत के समाज पर इतना गहरा प्रभाव था कि जब देश ने करवट ली तो महात्मा गाँधी-जैसे सहज में ही यहाँ के नेता बन गये। यही कारण है कि स्वतन्त्रता मिल जाने पर जाति घोर पतन की ओर अग्रसर हो रही है।
‘ज़माना बदल गया’ कहानी है स्वतन्त्रा प्राप्त करने की और उसके लिए आत्मा की हत्या कर लेने की। इसमें कारण वे शूरवीर नवयुवक नहीं हैं, जो देश के लिए सब प्रकार का त्याग और तपस्या करते रहते हैं। कारण है, उन नेताओं की अशुद्ध नीति, जो 1885 से 1947 तक के आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे हैं। ये नेता अपनी नीति की असफलता का दोष जनता पर देते रहते हैं। और जनता के त्याग तथा तपस्या का श्रेय स्वयं लेते रहे हैं।
स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् भारत समाज का नैतिक पतन तथा देश की राजनीतिक दुर्बलता इस दूषित नेतृत्व का ही परिणाम है। यह सर्वथा वैसा ही है, जैसा द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध में और उससे पूर्व, मित्र राष्ट्रों के नेताओं की अशुद्ध नीति के कारण योरूप को कम्यूनिस्टों के पाँवों में डाला जाना था।
यों तो इस पुस्तक में तीनों भाग उपन्यास ही हैं। इसके पात्र और स्थान काल्पनिक हैं। वैसे, इनमें वर्णित घटनाएँ और ऐतिहासिक पुरुषों के वृत्त प्रमाणित इतिहास-ग्रन्थों में से लिए गये हैं, परन्तु उन पर विवेचना हमारी है। इस पर भी, यह उपन्यास है और इसका किसी के मान-अपमान से सम्बन्ध नहीं है।
भारत के विषय में भी हमारा कहना यही है। सन् 1857 से लेकर 1947 तक के सतत संघर्ष से हमने भारत से अंग्रेजो को निकाल दिया, परन्तु इसे निकालने के प्रयास में हमने भारत की आत्मा की हत्या कर दी है। हमने अंग्रेजों को निकाल कर अपनी गर्दन नास्तिक अभारतीयों और मूर्खों के हाथ में दे दी है। जहाँ देश के दोनों द्वार भारत विरोधियों (पाकिस्तानियों) के हाथ में दे दिये हैं, वहाँ भारत का राज्य ऐसे नेताओं के हाथ में सौंप दिया है, जो धर्म-कर्म विहीन हैं और कम्यूनिस्टों के पद-चिह्नों पर चलने लगे हैं।
1857 से पूर्व तो देश के लोग मुसलमानों से देश को मुक्त करने में लगे थे। उस समय से पूर्व, देश को पुनः अपने वैभव और गौरव के स्थान पर ले जाने के लिए यह आवश्यक समझा जा रहा था कि यहाँ मुसलमानों को निःशेष किया जाये। कारण यह कि इस्लाम की शिक्षा, गै़र-मुसलमानों के साथ अन्याय, अत्याचार और बलात्कार करने की ही होती थी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि देश के गैर-मुसलमान मुसलमानों को सदा अपना शत्रु मानते रहे।
परन्तु इस समय देश में एक तीसरी शक्ति अर्थात् अंग्रेज़ आ पहुँचे और उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान के इस वैमनस्य से लाभ उठा अपना राज्य स्थापित करना आरम्भ कर दिया।
अतः देश के नेताओं ने अंग्रेज़ को साँझा शत्रु मान, परस्पर मैत्री कर ली और 1857 का युद्ध लड़ा। वह मैत्री अस्वाभाविक थी। उद्देश्य एक नहीं था। जीवन-मीमांसा भिन्न-भिन्न थी। कुछ अन्य भी कारण थे जिनसे युद्ध अपने अन्तिम ध्येय को प्राप्त नहीं कर सका। इस पर भी कुछ तो सफलता मिली। एक व्यावसायिक कम्पनी के अधिकार से निकलकर देश अंग्रेज़ी पार्लियामैन्ट के अधीन चला गया।
इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेज एक ओर मुसलमानों को हिन्दुओं के विरूद्ध करने में लग गये और दूसरी ओर हिन्दुओं को समझाने-बुझाने लगे कि देशवासी मिलकर रहेंगे तो लाभ होगा। इसके साथ-साथ वे हिन्दुओं में फूट के बीज भी बोने लगे।
हिन्दू इस कूटनीति के शिकार हो गये और स्वभाव से अथवा अंग्रेज़ के भड़काने से रूठे हुए मुसलमानों को मनाने के लिए उनको अधिक और अधिक राजनीतिक सुविधाएँ तथा अधिकार देना स्वीकार करने लगे। मुसलमान इस त्रिपक्षीय झमेले में लाभ की स्थिति में पहुँच गये।
हिन्दुओं को इस झमेले में से निकालने का मार्ग नहीं सूझा। यदि किसी ने मार्ग सुझाया भी तो तत्कालीन नेताओं को समझ नहीं आया और मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को उनके पास गिरौ रखने का प्रयत्न 1885 से आरम्भ हो गया। कुछ अंग्रेज़ीपढ़े-लिखे लोग एकत्रित होकर हिन्दुओं को समझाने लगे कि देश में मुख्य समुदाय होने से उनको इन रूठे हुए मुसलमानों को समझा-बुझाकर अपने साथ मिला लेना चाहिए। मुसलमान किसी भी गैर-मुसलमान का मित्र नहीं। हिन्दू भारत-द्रोही का मित्र नहीं हो सकता। इस पर भी मुसलमानों की मैत्री प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं को अपने देश प्रेम का बलिदान करना पड़ा। एक-एक विशेष अधिकार, जो मुसलमान को दिया जाता था, वह देश के नागरिकों के अधिकारों में से छीन कर ही दिया जाता था।
यह 1885 से लेकर 1916 तक चलता रहा। इसके पश्चात तो मुसलमान बंदर बाँट की भाँति अंग्रेजों और हिन्दुओं में तराजू पकड़ कर बैठ गये। अंग्रेज़ भी घाटे में रहे और हिन्दू भी। अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा और सख्त बदनाम होकर। हिन्दुओं को पाकिस्तान देना पड़ा लाखों की हत्या कराकर। मजे में रहे मुसलमान। यह ठीक है कि मुसलमान उतना लाभ नहीं उठा सके, जितना बन्दर बाँट की कहानी में बन्दर को प्राप्त हुआ था। इसमें कारण था उनकी अपनी दुर्बलता।
1919 के पश्चात् हिन्दुओं में एक और देवता अवतीर्ण हुए। यह थे महात्मा गाँधी। इन्होंने मुसलमानों के लिए बहुमत और उचित हिन्दू-पक्ष के धर्म और संस्कृति का बलिदान तो किया ही, साथ ही इन्होंने ईमानदारी की भी बलि देने की शिक्षा देनी आरम्भ कर दी। मुसलमान को प्रत्येक मूल्य पर प्रसन्न करना धर्म बन गया। अहिंसा के पर्दे के पीछे ईमानदार और सरल चित्त देश-प्रेमियों का इस कारण विरोध आरम्भ हो गया कि मुसलमानों को प्रसन्न करना है।
अतः We won freedom but lost our soul’-अर्थात् हमने राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली, परन्तु देश की आत्मा की हत्या कर बैठे हैं।
वर्तमान भारतीय समाज की आत्म-विहीनता का चित्र तो हम किसी अन्य पुस्तक में लिखेंगे। वह इस पुस्तक का उपसंहार होगा। इसमें हमने केवल यह बताने का यत्न किया है कि भारतीय समाज, जो धर्म-ईमान के लिए जान हथेली पर रखकर धर्म-क्षेत्र में अवतीर्ण थी, कैसे स्वराज्य मिलने पर भीरू, देशद्रोही, धर्म-कर्म विहीन और सब प्रकार के दुर्गणों से युक्त हो गई है ? ‘ज़माना बदल गया’ की यही कहनी है।
‘ज़माना बदल गया है तीन भागों1 में लिखा गया है। प्रथम भाग में 1857 से लेकर 1907 तक की घटनाओं का वर्णन है। द्वितीय भाग में 1907 से 1920 तक की देश की उथल-पुथल की विवेचना है और इस तृतीय भाग में 1921 से 1947 तक का वृत्तान्त है।
आज से नौ सौ पूर्व मुसलमानों से पराजित होने का कारण, जीवन सम्बन्धी मिथ्या-मीमांसा का व्यापक प्रचार था। उस जीवन-मीमांसा का आधार था, जैन तथा बौद्ध मत की अहिंसा की नीति, वैष्णव मत का
1. ज़माना बदल गया का चतुर्थ भाग बाद में लिखा गया है जो एक प्रकार से पुस्तक का उपसंहार ही है।
भगवान् पर अन्ध-विश्वास कर स्वयं अकर्मण्य बने रहने की प्रवृत्ति और नवीन वेदान्तियों का संसार को मिथ्या मानना। ये मिथ्या मीमांसाएँ न तो प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति की देन थीं, न ही इनका स्रोत धर्म में था। इस पर भी ये थीं और इनके व्यापक प्रचार के कारण ही, कुछ सहस्र मुसलमान, विदेश से आकर इस विशाल देश में राज्य जमा बैठे और फिर यहाँ कि कोटि-कोटि जनता पर अत्याचार करते रहे।
इन जीवन मीमांसाओं का भारत के समाज पर इतना गहरा प्रभाव था कि जब देश ने करवट ली तो महात्मा गाँधी-जैसे सहज में ही यहाँ के नेता बन गये। यही कारण है कि स्वतन्त्रता मिल जाने पर जाति घोर पतन की ओर अग्रसर हो रही है।
‘ज़माना बदल गया’ कहानी है स्वतन्त्रा प्राप्त करने की और उसके लिए आत्मा की हत्या कर लेने की। इसमें कारण वे शूरवीर नवयुवक नहीं हैं, जो देश के लिए सब प्रकार का त्याग और तपस्या करते रहते हैं। कारण है, उन नेताओं की अशुद्ध नीति, जो 1885 से 1947 तक के आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे हैं। ये नेता अपनी नीति की असफलता का दोष जनता पर देते रहते हैं। और जनता के त्याग तथा तपस्या का श्रेय स्वयं लेते रहे हैं।
स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् भारत समाज का नैतिक पतन तथा देश की राजनीतिक दुर्बलता इस दूषित नेतृत्व का ही परिणाम है। यह सर्वथा वैसा ही है, जैसा द्वितीय विश्व-व्यापी युद्ध में और उससे पूर्व, मित्र राष्ट्रों के नेताओं की अशुद्ध नीति के कारण योरूप को कम्यूनिस्टों के पाँवों में डाला जाना था।
यों तो इस पुस्तक में तीनों भाग उपन्यास ही हैं। इसके पात्र और स्थान काल्पनिक हैं। वैसे, इनमें वर्णित घटनाएँ और ऐतिहासिक पुरुषों के वृत्त प्रमाणित इतिहास-ग्रन्थों में से लिए गये हैं, परन्तु उन पर विवेचना हमारी है। इस पर भी, यह उपन्यास है और इसका किसी के मान-अपमान से सम्बन्ध नहीं है।
प्रथम परिच्छेद
रायसाहब मुंशी गुलाब सिंह के सुपुत्र रायसाहब मोहनलाल सन् 1921 के
निर्वाचनों में पंजाब कौंशिल की सदस्यता के लिये प्रत्याशी थे। रायसाहब की
उपाधि से विभूषित होने के कारण यह बात निर्विवाद थी कि आपको अंग्रेज़ी
सरकार का समर्थन प्राप्त था।
जब रायसाहब ने निर्णय लिया कि वे चुनाव में खड़े होंगे, तब वायुमंडल में यह बात प्रसिद्ध थी कि महात्मा गाँधी जी देश को इन कौंसिलों के बहिष्कार के लिये कह रहे हैं। रायसाहब मोहनलाल इस परिस्थिति में सहज सफलता की आशा रखते थे। उन्होनें लाहौर के प्रसिद्ध वकीलों एवं रईसों का समर्थन प्राप्त कर लिया था। उनके घर पर दावतों और चाय-पार्टियों की धूम थी और लाहौर की गिनी-चुनी रईस तथा व्यापारी जनता को बुला-बुला कर समझाया जा रहा था कि रायसाहब को कौंसिल में भेज कर न केवल देश और जाति का कल्याण होने वाला है, प्रत्युत इससे उनका अपना भी लाभ होगा।
इसी समय एकाएक यह बात फैल गयी कि मच्छी हट्टी बाज़ार में ह़ज्जाम की दुकान करने वाला एक राधाकृष्ण रायसाहब के विरोध में खड़ा होने वाला है। रायसाहब के घर कभी वह हजामत बनाने आया करता था। जब उसने दुकान की तो ग्राहकों के घर जाकर हजामत बनानी बन्द कर दी थी। रायसाहब राधाकृष्ण की योग्यता और सार्वजनिक सेवाओं के विषय में जानते थे। वे शून्य तो थीं ही, साथ ही, उनके विषय में रायसाहब यह भी जानते थे। कि वह जुआरी है। इससे उनको जब एक परिचित, कान्वैन्ट स्कूल के अंग्रेज़ी के अध्यापक, मधुसूदन ने, उनके दफ्तर में बैठे हुए यह बात बताई तो वे खिलखिलाकर हँस पडे़।
हँसकर वे पूछने लगे, ‘‘मिस्टर सूद ! किस चंडूखाने की बातें सुन-कर आये हो ?’’
‘‘रायसाहब ! चंडूखाने की नहीं। यह तो जूएखाने की बात है। आपको कदाचित् विदित नहीं कि ‘सूद ऐक्सपोर्ट ऐण्ड इम्पोर्ट एजेंसी’ में राधा जुआ खेलने आया करता है और वह एजेंसी मेरे भाई की है। दो दिन हुए यह शरारत मेरे भाई, नरेन्द्र को सूझी थी। वह लाला रामभजदत्तजी के लड़के का मित्र है। अतः उसने अपने मित्र के पिता से मिलकर यह बात कांग्रेस के नेताओं से स्वीकार करवा ली है कि वे गुप्त रूप से राधा का समर्थन करेंगे।’’
‘‘तो तुम क्या समझते हो कि जनता इस विषय में उनकी बात मानेगी ?’’ राय साहब ने तनिक गम्भीर होकर कहा।
‘‘मैं नहीं कह सकता। परन्तु आज मैं अपने माता-पिता से मिलने गया था और वे इस समाचार को सुन, हँस-हँसकर दुहरे होने लगे थे। मैंने हँसने का कारण पूछा तो कहने लगे, ‘एक सरकारी पिठ्ठू और लाहौर के तीन-चार चोटी के रईसों में एक की, एक जाति के हज्जाम से पीठ लगती देख मज़ा आ जायेगा।’ ’’
‘‘बहुत मूर्ख हैं तुम्हारे माता-पिता ! क्या करते हैं वे ?’’
‘‘आजकल रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहे हैं।’’
बहुत कमाया मालूम होता है ! ’’
‘‘कुछ अधिक तो नहीं। हाँ, कुछ ‘शेयर्ज़’ खरीद रखे हैं और उनकी आय से निर्वाह होता है। मकान अपना है और कुछ अधिक खर्च भी नहीं है। दो जीव हैं। माता अन्धी हैं, पिता साधु-स्वभाव हैं। सुरापान कर घर पड़े रहते हैं ?’’
‘‘साधु हैं और सुरापान कर घर में पड़े रहते हैं। वे साधु हो गये थे। उनकी एक छोकरी से लटक लग गयी तो साधुपन छोड़, गृहस्थी बन गये और चालीस वर्ष के होते हुए बारह वर्ष की एक कुमारी से विवाह कर बैठे। वे भाँग-चरस तो खूब पीते थे, इस पर भी धर्मात्मा विख्यात थे। अब भी वे बम्बई में रहते हैं। सुना है कि अब फिर उन्होंने संन्यास ले लिया है। अब वे अस्सी वर्ष के वृद्ध अपनी पचास वर्ष की पत्नी को छोड़, वहाँ एक मन्दिर में महन्त बन गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।’’
‘‘ओह ! तो लाला रामरक्खामल्ल की बातें कर रहे हो ?’’
‘‘ जी। वे मेरे बाबा को बड़े भाई हैं। मुझको उनके नाम से भी नफरत है।’’
‘‘अच्छा सूद ! यह एक्सपोर्ट ऐण्ड इम्पोर्ट एजेंसी क्या व्यापार करती है ?’’
‘‘व्यापार तो लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए है। वास्तव में वहाँ जुआ होता है और औरतों की दलाली होती है।’’
‘‘ओह ! तो इस बदमाशी के अड्डे के विषय में पुलिस कुछ नहीं जानती ?’’
‘‘पुलिस सब-कुछ जानती है। आप तो जानते ही हैं कि ऐसे काम उस महकमे की सरपस्ती के बिना चल नहीं सकते।’’
‘‘देखो, रामरक्खामल्ल मेरे पूज्य थे। मैं उनकी नीति को भली-भाँति जानता और पसन्द करता था। उनका पता लिखा दो। हाँ, तुम बताओ कि हमारा काम करोगे अथवा नहीं ?’’
‘‘क्या करना होगा ?’’
‘‘स्कूल से तीन महीने की छुट्टी ले लो। तनिक शहर और बाहर घूम जाओ। लोगों को समझाओ कि अपने पाँव पर खुद कुल्हाड़ी न मारें।
‘‘मुसलमानों में तो लाहौर से दो चुने जाने वाले हैं। एक मियाँ फज़लहुसैन शहर के पूर्वी भाग और देहात से और दूसरे मियाँ अब्दुलमजीद खाँ शहर के पश्चिमी विभाग से तथा इधर से देहातों से। दोनों बैरिस्टर हैं। दोनों सरकार से मिलकर मुसलमानों की तरक्की की कोशिश करेंगे। इनके मुकाबले में हमारी जाति में से नाई और भंगी खड़े होंगे, जो न व्यापार की बात जानते हैं, न ही इल्म-हुनर की। वे कौंसिलों में जाकर हिन्दुओं का कुछ भी लाभ कर नहीं सकेंगे।’’
‘‘बात तो आपकी ठीक है, परन्तु रायसाहब ! अगर आपके स्थान पर लाला हरकृष्णलाल अथवा डॉक्टर नारंग खड़े हो जाते तो मुसलमानों का मुकाबला हो जाता।’’
‘‘लाला हरकृष्णलाल तो उद्योगपतियों की ओर से खड़े हो ही रहे हैं और वे कदाचित् बिना मुकाबले के सफल हो जायेंगे। डॉक्टर नारंग यद्यपि गाँधी जी कि नीति को पसन्द नहीं करते, इस पर भी उनसे डरते जरूर हैं।
मधुसूदन का राय साहब से सम्पर्क स्कूल के मास्टर होने के नाते था। मधु ने ‘इंग्लिश कम्पोज़ीशन’ पर एक पुस्तक लिखी थी। वह पुस्तक राय-साहब ने छपवाई थी। मधुसूदन की मित्रता डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन मिस्टर आर्थर ह्वाइट से थी। अतः उसकी पुस्तक स्कूलों में आठवीं-नवीं तथा दसवीं श्रेणी के पाठ्य-क्रम में स्वीकार हो गई थी। पुस्तक पिछले दो वर्ष में पचास हजार बिक चुकी थी और पाँच हजार रूपये रॉयल्टी का मिस्टर सूद को मिल चुका था। रायसाहब उनको एक अन्य पुस्तक ‘सिलेक्टिड ऐसेज़’ के संकलन के लिए कह रहे थे। मधुसूदन इसको लिखने का यत्न कर रहा था।
मधुसूदन ने स्कूल से छुट्टी तो नहीं ली, परन्तु प्रातः एवं सायं वह रायसाहब को सफल बनाने में लग गया। जिस दिन उसने रायसाहब को राधा हज्जाम के कौंसिल की सदस्यता के लिए प्रत्याशी होने की बात बताई, उससे अगले दिन पुलिस ने नरेन्द्र के कार्यालय पर छापा मारा। उसकी तलाशी ली तथा उसको मुहरबन्द कर दिया। नरेन्द्र को पुलिस वालों ने बताया कि उनको डिप्टी कमिश्नर साहब की आज्ञा मिली है कि यह दुकान तीन महीने के लिए बन्द कर दी जाये।
‘‘क्यों ? ’’ नरेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर पूछा।
‘‘इसलिए कि यहाँ जुआ होता है।’’
‘‘तो साहब को इस बात का आज ज्ञान हुआ है ?’’
सब-इन्स्पैक्टर का कहना था-‘‘साहब को उनका हिस्सा तो मिल जाया करता था। इस पर भी क्या हुआ है हम कह नहीं सकते। तुम साहब से स्वयं मिलकर बात कर लो।’’
नरेन्द्र के मस्तिष्क में एक अन्य शरारत सूझी। उसने डिप्टी-कमिश्वनर के पास जाने के स्थान जनता के पास जाना उचित समझा। वास्तव में यह शरारत, कि रायसाहब के मुकाबले में एक नाई को खड़ा कर कामयाब बनाया जाये, उसके ही दिमाग़ की उपज थी। उसने ही राधाकृष्ण को इस काम के लिए तैयार किया था और उसके लिए नेताओं का भी गुप्त समर्थन प्राप्त किया था।
जिस दिन उसकी बैठक को मुहरबन्द किया गया, उसी दिन सायंकाल नरेन्द्र ने राधा कृष्ण का जलूस निकाला और स्थान-स्थान पर खड़े होकर व्याख्यान दे दिये। इसमें उसने स्पष्ट कहा, ‘‘सरकार के पाँव उखड़ गये। एक नाई ने रायसाहब का पानी पतला कर दिया। राधाकृष्ण के समर्थक के कारोबार को ताले लगा, वहाँ पुलिस बैठा दी है ।’’
इसके उपरान्त वह अपनी प्रशंसा और अपने साथ हुए जुल्म की कहानी सुना देता। सरकार की इस ‘धाँधली’ का समाचार सुनकर साधारण जनता भड़क उठी और वह जलूस जो सौ-दो-सौ आदमियों से आरम्भ हुआ था, हीरा मंडी में पहुँचता-पहुँचता पचास हजार से भी अधिक का जन-समूह बन गया। बजाज़ हट्टा में गुज़रते हुए जलूस को एक घंटे से अधिक समय लग गया।
लोग नारे लगा रहे थे, ‘नहीं रखनी सरकार ज़ालिम, नहीं रखनी।’ एक ओर जुलूस निकल रहा था, दूसरी ओर मधु अपने पिता श्याम-नारायण को लेकर रायसाहब से मिलने के लिये जा पहुँचा। जब ये लोग रायसाहब की कोठी पर पहुँचे, वे ड्रायंग-रूम में बैठे नगर के जलूस का समाचार सुन-सुनकर पसीना हो रहे थे। मधुसूदन भी यह बात सुन रहा था। उसने रायसाहब की खुशामद करने के लिये पूछ लिया, ‘‘क्यों राय साहब ! उस जलूस में मतदाता कितने थे ?’’
‘‘यह मैं कैसे बता सकता हूँ ? मैं तो यह कह रहा हूँ कि ‘सूद इम्पोर्ट ऐण्ड एक्सपोर्ट एजेन्सी’ को बन्द कराने का प्रभाव यह हुआ है कि लोग सरकार का विरोध करने के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं। पचास हजार में दो तीन हजा़र मतदाता तो ज़रूर होंगे।’’
‘‘नहीं रायसाहब ! ऐसी कोई बात नहीं है। इस जलूस में प्रायः विद्यार्थी और दफ्तरों के क्लर्क लोग थे, जिनका न यहाँ घर है, न वोट।’’ मधु का कथन था।
रायसाहब को भी यह बात समझ में आ रही थी। रायसाहब ने चाय मँगवा ली और मधु ने अपने पिता का परिचय दे दिया। उसने कहा-‘‘यह है मेरे पिता श्यामनारायण जी। ये ई. प्लोमर कम्पनी के मैनेजर थे, अब ‘रिटायर्ड लाइफ लीड’ कर रहे हैं।’’
रायसाहब ने हाथ मिलाते हुए कहा-‘‘श्यामनारायण जी ! मधु बहुत ही योग्य लड़का है। आपको यह बताते हुए मुझे प्रसनन्ता होती है कि अपनी इंग्लिश कम्पोज़ीशन की किताब की रॉयल्टी ही पाँच हज़ार रूपया, यह प्राप्त कर चुका है। सब पढ़े-लिखे लोगों ने और स्कूल के हैडमास्टरों ने किताब की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।’’
श्यामनारायण मधु की प्रशंसा सुन, प्रसन्न हो रहा था। इस समय रायसाहब ने कहा, ‘‘मैं शिक्षा के प्रचार के लिये कौंसिल में जाना चाहता हूँ। इस समय मुझको प्रत्येक उस व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है, जो शिक्षा में रूचि रखता है।
‘‘आप बताइये कि इसमें आप क्या कर सकते हैं ?’’
श्यामनारायण ने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘मैं तो एक ही बात कर सकता हूँ कि आपको सम्मति दूँ आप निर्वाचन लड़ने का विचार छोड़ दें। इस समय देश में आँधी आ रही है और आप-जैसे भले मनुष्य के लिये यही उचित है इस आँधी के मार्ग से बचकर एक ओर हो जाएं। मुझे भय है के इस आँधी में बड़े-बड़े मीनार उलट कर गिर जायेंगे।’’
श्यामनारायण की बात सुन, रायसाहब मुख देखते रहे गये। फिर पूछने लगे, ‘‘आपकी इस भविष्य वाणी का आधार क्या है ? मैं तो समझता हूँ कि हिन्दू इतने मूर्ख नहीं कि अपना जीवन मुसलमानों के हाथ में दे दें।’’
‘‘वह तो रायसाहब ! दे दिया गया है। वह आप अब बचा नहीं सकेंगे। जिस दिन सरकार ने मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया और उनके निर्वाचन हिन्दुओं से पृथक किये, उसी दिन से पंजाब को मुसलमानों के अधिकार में दे दिया गया समझना चाहिए था। अब कौंसिल में मुसलमान 60 सदस्यों के मुकाबले में हिन्दुओं के 40 सदस्य होंगे। आप सब-के-सब मिल भी जायेंगे, तब भी तो मुसलमानों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे।’’
‘‘तो क्या यह राधा नाई कर सकेगा ?’’
‘‘यह कुछ करने के लिए थोड़े ही भेजा जा रहा है। यह तो एक प्रकार का संकेत है कि अब हिन्दू रायसाहबों और रायज़ादों के प्रभाव से बाहर हैं। आप हिन्दुओं का नाम ले-लेकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि का प्रबन्ध कर रहे हैं। हिन्दुओं का कल्याण आप नहीं कर सकेंगे और न ही राधा हज्जाम कर सकेगा। इस पर भी वह एक बात अवश्य सिद्ध कर सकेगा,
जब रायसाहब ने निर्णय लिया कि वे चुनाव में खड़े होंगे, तब वायुमंडल में यह बात प्रसिद्ध थी कि महात्मा गाँधी जी देश को इन कौंसिलों के बहिष्कार के लिये कह रहे हैं। रायसाहब मोहनलाल इस परिस्थिति में सहज सफलता की आशा रखते थे। उन्होनें लाहौर के प्रसिद्ध वकीलों एवं रईसों का समर्थन प्राप्त कर लिया था। उनके घर पर दावतों और चाय-पार्टियों की धूम थी और लाहौर की गिनी-चुनी रईस तथा व्यापारी जनता को बुला-बुला कर समझाया जा रहा था कि रायसाहब को कौंसिल में भेज कर न केवल देश और जाति का कल्याण होने वाला है, प्रत्युत इससे उनका अपना भी लाभ होगा।
इसी समय एकाएक यह बात फैल गयी कि मच्छी हट्टी बाज़ार में ह़ज्जाम की दुकान करने वाला एक राधाकृष्ण रायसाहब के विरोध में खड़ा होने वाला है। रायसाहब के घर कभी वह हजामत बनाने आया करता था। जब उसने दुकान की तो ग्राहकों के घर जाकर हजामत बनानी बन्द कर दी थी। रायसाहब राधाकृष्ण की योग्यता और सार्वजनिक सेवाओं के विषय में जानते थे। वे शून्य तो थीं ही, साथ ही, उनके विषय में रायसाहब यह भी जानते थे। कि वह जुआरी है। इससे उनको जब एक परिचित, कान्वैन्ट स्कूल के अंग्रेज़ी के अध्यापक, मधुसूदन ने, उनके दफ्तर में बैठे हुए यह बात बताई तो वे खिलखिलाकर हँस पडे़।
हँसकर वे पूछने लगे, ‘‘मिस्टर सूद ! किस चंडूखाने की बातें सुन-कर आये हो ?’’
‘‘रायसाहब ! चंडूखाने की नहीं। यह तो जूएखाने की बात है। आपको कदाचित् विदित नहीं कि ‘सूद ऐक्सपोर्ट ऐण्ड इम्पोर्ट एजेंसी’ में राधा जुआ खेलने आया करता है और वह एजेंसी मेरे भाई की है। दो दिन हुए यह शरारत मेरे भाई, नरेन्द्र को सूझी थी। वह लाला रामभजदत्तजी के लड़के का मित्र है। अतः उसने अपने मित्र के पिता से मिलकर यह बात कांग्रेस के नेताओं से स्वीकार करवा ली है कि वे गुप्त रूप से राधा का समर्थन करेंगे।’’
‘‘तो तुम क्या समझते हो कि जनता इस विषय में उनकी बात मानेगी ?’’ राय साहब ने तनिक गम्भीर होकर कहा।
‘‘मैं नहीं कह सकता। परन्तु आज मैं अपने माता-पिता से मिलने गया था और वे इस समाचार को सुन, हँस-हँसकर दुहरे होने लगे थे। मैंने हँसने का कारण पूछा तो कहने लगे, ‘एक सरकारी पिठ्ठू और लाहौर के तीन-चार चोटी के रईसों में एक की, एक जाति के हज्जाम से पीठ लगती देख मज़ा आ जायेगा।’ ’’
‘‘बहुत मूर्ख हैं तुम्हारे माता-पिता ! क्या करते हैं वे ?’’
‘‘आजकल रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहे हैं।’’
बहुत कमाया मालूम होता है ! ’’
‘‘कुछ अधिक तो नहीं। हाँ, कुछ ‘शेयर्ज़’ खरीद रखे हैं और उनकी आय से निर्वाह होता है। मकान अपना है और कुछ अधिक खर्च भी नहीं है। दो जीव हैं। माता अन्धी हैं, पिता साधु-स्वभाव हैं। सुरापान कर घर पड़े रहते हैं ?’’
‘‘साधु हैं और सुरापान कर घर में पड़े रहते हैं। वे साधु हो गये थे। उनकी एक छोकरी से लटक लग गयी तो साधुपन छोड़, गृहस्थी बन गये और चालीस वर्ष के होते हुए बारह वर्ष की एक कुमारी से विवाह कर बैठे। वे भाँग-चरस तो खूब पीते थे, इस पर भी धर्मात्मा विख्यात थे। अब भी वे बम्बई में रहते हैं। सुना है कि अब फिर उन्होंने संन्यास ले लिया है। अब वे अस्सी वर्ष के वृद्ध अपनी पचास वर्ष की पत्नी को छोड़, वहाँ एक मन्दिर में महन्त बन गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।’’
‘‘ओह ! तो लाला रामरक्खामल्ल की बातें कर रहे हो ?’’
‘‘ जी। वे मेरे बाबा को बड़े भाई हैं। मुझको उनके नाम से भी नफरत है।’’
‘‘अच्छा सूद ! यह एक्सपोर्ट ऐण्ड इम्पोर्ट एजेंसी क्या व्यापार करती है ?’’
‘‘व्यापार तो लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए है। वास्तव में वहाँ जुआ होता है और औरतों की दलाली होती है।’’
‘‘ओह ! तो इस बदमाशी के अड्डे के विषय में पुलिस कुछ नहीं जानती ?’’
‘‘पुलिस सब-कुछ जानती है। आप तो जानते ही हैं कि ऐसे काम उस महकमे की सरपस्ती के बिना चल नहीं सकते।’’
‘‘देखो, रामरक्खामल्ल मेरे पूज्य थे। मैं उनकी नीति को भली-भाँति जानता और पसन्द करता था। उनका पता लिखा दो। हाँ, तुम बताओ कि हमारा काम करोगे अथवा नहीं ?’’
‘‘क्या करना होगा ?’’
‘‘स्कूल से तीन महीने की छुट्टी ले लो। तनिक शहर और बाहर घूम जाओ। लोगों को समझाओ कि अपने पाँव पर खुद कुल्हाड़ी न मारें।
‘‘मुसलमानों में तो लाहौर से दो चुने जाने वाले हैं। एक मियाँ फज़लहुसैन शहर के पूर्वी भाग और देहात से और दूसरे मियाँ अब्दुलमजीद खाँ शहर के पश्चिमी विभाग से तथा इधर से देहातों से। दोनों बैरिस्टर हैं। दोनों सरकार से मिलकर मुसलमानों की तरक्की की कोशिश करेंगे। इनके मुकाबले में हमारी जाति में से नाई और भंगी खड़े होंगे, जो न व्यापार की बात जानते हैं, न ही इल्म-हुनर की। वे कौंसिलों में जाकर हिन्दुओं का कुछ भी लाभ कर नहीं सकेंगे।’’
‘‘बात तो आपकी ठीक है, परन्तु रायसाहब ! अगर आपके स्थान पर लाला हरकृष्णलाल अथवा डॉक्टर नारंग खड़े हो जाते तो मुसलमानों का मुकाबला हो जाता।’’
‘‘लाला हरकृष्णलाल तो उद्योगपतियों की ओर से खड़े हो ही रहे हैं और वे कदाचित् बिना मुकाबले के सफल हो जायेंगे। डॉक्टर नारंग यद्यपि गाँधी जी कि नीति को पसन्द नहीं करते, इस पर भी उनसे डरते जरूर हैं।
मधुसूदन का राय साहब से सम्पर्क स्कूल के मास्टर होने के नाते था। मधु ने ‘इंग्लिश कम्पोज़ीशन’ पर एक पुस्तक लिखी थी। वह पुस्तक राय-साहब ने छपवाई थी। मधुसूदन की मित्रता डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन मिस्टर आर्थर ह्वाइट से थी। अतः उसकी पुस्तक स्कूलों में आठवीं-नवीं तथा दसवीं श्रेणी के पाठ्य-क्रम में स्वीकार हो गई थी। पुस्तक पिछले दो वर्ष में पचास हजार बिक चुकी थी और पाँच हजार रूपये रॉयल्टी का मिस्टर सूद को मिल चुका था। रायसाहब उनको एक अन्य पुस्तक ‘सिलेक्टिड ऐसेज़’ के संकलन के लिए कह रहे थे। मधुसूदन इसको लिखने का यत्न कर रहा था।
मधुसूदन ने स्कूल से छुट्टी तो नहीं ली, परन्तु प्रातः एवं सायं वह रायसाहब को सफल बनाने में लग गया। जिस दिन उसने रायसाहब को राधा हज्जाम के कौंसिल की सदस्यता के लिए प्रत्याशी होने की बात बताई, उससे अगले दिन पुलिस ने नरेन्द्र के कार्यालय पर छापा मारा। उसकी तलाशी ली तथा उसको मुहरबन्द कर दिया। नरेन्द्र को पुलिस वालों ने बताया कि उनको डिप्टी कमिश्नर साहब की आज्ञा मिली है कि यह दुकान तीन महीने के लिए बन्द कर दी जाये।
‘‘क्यों ? ’’ नरेन्द्र ने आश्चर्य में पड़कर पूछा।
‘‘इसलिए कि यहाँ जुआ होता है।’’
‘‘तो साहब को इस बात का आज ज्ञान हुआ है ?’’
सब-इन्स्पैक्टर का कहना था-‘‘साहब को उनका हिस्सा तो मिल जाया करता था। इस पर भी क्या हुआ है हम कह नहीं सकते। तुम साहब से स्वयं मिलकर बात कर लो।’’
नरेन्द्र के मस्तिष्क में एक अन्य शरारत सूझी। उसने डिप्टी-कमिश्वनर के पास जाने के स्थान जनता के पास जाना उचित समझा। वास्तव में यह शरारत, कि रायसाहब के मुकाबले में एक नाई को खड़ा कर कामयाब बनाया जाये, उसके ही दिमाग़ की उपज थी। उसने ही राधाकृष्ण को इस काम के लिए तैयार किया था और उसके लिए नेताओं का भी गुप्त समर्थन प्राप्त किया था।
जिस दिन उसकी बैठक को मुहरबन्द किया गया, उसी दिन सायंकाल नरेन्द्र ने राधा कृष्ण का जलूस निकाला और स्थान-स्थान पर खड़े होकर व्याख्यान दे दिये। इसमें उसने स्पष्ट कहा, ‘‘सरकार के पाँव उखड़ गये। एक नाई ने रायसाहब का पानी पतला कर दिया। राधाकृष्ण के समर्थक के कारोबार को ताले लगा, वहाँ पुलिस बैठा दी है ।’’
इसके उपरान्त वह अपनी प्रशंसा और अपने साथ हुए जुल्म की कहानी सुना देता। सरकार की इस ‘धाँधली’ का समाचार सुनकर साधारण जनता भड़क उठी और वह जलूस जो सौ-दो-सौ आदमियों से आरम्भ हुआ था, हीरा मंडी में पहुँचता-पहुँचता पचास हजार से भी अधिक का जन-समूह बन गया। बजाज़ हट्टा में गुज़रते हुए जलूस को एक घंटे से अधिक समय लग गया।
लोग नारे लगा रहे थे, ‘नहीं रखनी सरकार ज़ालिम, नहीं रखनी।’ एक ओर जुलूस निकल रहा था, दूसरी ओर मधु अपने पिता श्याम-नारायण को लेकर रायसाहब से मिलने के लिये जा पहुँचा। जब ये लोग रायसाहब की कोठी पर पहुँचे, वे ड्रायंग-रूम में बैठे नगर के जलूस का समाचार सुन-सुनकर पसीना हो रहे थे। मधुसूदन भी यह बात सुन रहा था। उसने रायसाहब की खुशामद करने के लिये पूछ लिया, ‘‘क्यों राय साहब ! उस जलूस में मतदाता कितने थे ?’’
‘‘यह मैं कैसे बता सकता हूँ ? मैं तो यह कह रहा हूँ कि ‘सूद इम्पोर्ट ऐण्ड एक्सपोर्ट एजेन्सी’ को बन्द कराने का प्रभाव यह हुआ है कि लोग सरकार का विरोध करने के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं। पचास हजार में दो तीन हजा़र मतदाता तो ज़रूर होंगे।’’
‘‘नहीं रायसाहब ! ऐसी कोई बात नहीं है। इस जलूस में प्रायः विद्यार्थी और दफ्तरों के क्लर्क लोग थे, जिनका न यहाँ घर है, न वोट।’’ मधु का कथन था।
रायसाहब को भी यह बात समझ में आ रही थी। रायसाहब ने चाय मँगवा ली और मधु ने अपने पिता का परिचय दे दिया। उसने कहा-‘‘यह है मेरे पिता श्यामनारायण जी। ये ई. प्लोमर कम्पनी के मैनेजर थे, अब ‘रिटायर्ड लाइफ लीड’ कर रहे हैं।’’
रायसाहब ने हाथ मिलाते हुए कहा-‘‘श्यामनारायण जी ! मधु बहुत ही योग्य लड़का है। आपको यह बताते हुए मुझे प्रसनन्ता होती है कि अपनी इंग्लिश कम्पोज़ीशन की किताब की रॉयल्टी ही पाँच हज़ार रूपया, यह प्राप्त कर चुका है। सब पढ़े-लिखे लोगों ने और स्कूल के हैडमास्टरों ने किताब की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।’’
श्यामनारायण मधु की प्रशंसा सुन, प्रसन्न हो रहा था। इस समय रायसाहब ने कहा, ‘‘मैं शिक्षा के प्रचार के लिये कौंसिल में जाना चाहता हूँ। इस समय मुझको प्रत्येक उस व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है, जो शिक्षा में रूचि रखता है।
‘‘आप बताइये कि इसमें आप क्या कर सकते हैं ?’’
श्यामनारायण ने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘मैं तो एक ही बात कर सकता हूँ कि आपको सम्मति दूँ आप निर्वाचन लड़ने का विचार छोड़ दें। इस समय देश में आँधी आ रही है और आप-जैसे भले मनुष्य के लिये यही उचित है इस आँधी के मार्ग से बचकर एक ओर हो जाएं। मुझे भय है के इस आँधी में बड़े-बड़े मीनार उलट कर गिर जायेंगे।’’
श्यामनारायण की बात सुन, रायसाहब मुख देखते रहे गये। फिर पूछने लगे, ‘‘आपकी इस भविष्य वाणी का आधार क्या है ? मैं तो समझता हूँ कि हिन्दू इतने मूर्ख नहीं कि अपना जीवन मुसलमानों के हाथ में दे दें।’’
‘‘वह तो रायसाहब ! दे दिया गया है। वह आप अब बचा नहीं सकेंगे। जिस दिन सरकार ने मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया और उनके निर्वाचन हिन्दुओं से पृथक किये, उसी दिन से पंजाब को मुसलमानों के अधिकार में दे दिया गया समझना चाहिए था। अब कौंसिल में मुसलमान 60 सदस्यों के मुकाबले में हिन्दुओं के 40 सदस्य होंगे। आप सब-के-सब मिल भी जायेंगे, तब भी तो मुसलमानों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे।’’
‘‘तो क्या यह राधा नाई कर सकेगा ?’’
‘‘यह कुछ करने के लिए थोड़े ही भेजा जा रहा है। यह तो एक प्रकार का संकेत है कि अब हिन्दू रायसाहबों और रायज़ादों के प्रभाव से बाहर हैं। आप हिन्दुओं का नाम ले-लेकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि का प्रबन्ध कर रहे हैं। हिन्दुओं का कल्याण आप नहीं कर सकेंगे और न ही राधा हज्जाम कर सकेगा। इस पर भी वह एक बात अवश्य सिद्ध कर सकेगा,
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